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Friday, 18 July 2014


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चक्रवर्ती सम्राट सहस्त्रबाहु (कार्तवीर्य अर्जुन)



पुराणों में हैहयवंश का इतिहास महाराज चंद्रदेव की तेईसवी पीढ़ी में उत्पन्न महाराज वीतिहोत्र के समय तक पाया जाता है I श्री मदभागवत के अनुसार महाराज ब्रह्मा की बारहवी पीढ़ी में महाराज हैहय का जन्म हुआ और हरिवंश पुराणों के अनुसार ग्यारहवी पीढ़ी में महाराज हैहय तीन भाई थे , जिनमे हैहय सबसे छोटे भाई थे I शेष दो भाई - महाहय एवं वेणुहय थे जिन्होंने अपने - अपने नये वंशो की परंपरा स्थापित की I

महाराज हैहय चन्द्रवंश के अंतर्गत यदुवंश के थे और उन्होंने इसी वंश को अपने वैशिष्ठ्य के कारण हैहयवंश नाम की नई शाखा स्थापित की I महाराज हैहय अपनी तेजस्वी और मेधावी बुद्धि के कारण बाल्यकाल से ही वेद , शास्त्र , धनुर्विद्या , अस्त्र - शस्त्र संचालन , राजनीति और धर्मनीति में पारंगत हों गये थे I महाराज हैहय का विवाह राजा रम्य की राजकुमारी एकावली तथा उनके मंत्री की सुपुत्री यशोवती के साथ हुआ I इनके एक पुत्र हुआ , जो महाराज के स्वर्गारोहण के बाद राज्याधिकारी हुए I

महाराज हैहय ने मध्य और दक्षिण भारत में अनार्यो को बहुत दूर खदेड़ कर आर्य सभ्यता , संस्कृति और राज्य का विस्तार किया I इतिहास वेत्ता श्री सी सी वैद्य ने लिखा है कि इन्होने सूर्यवंशियो से भी डटकर युद्ध किया और उन्हें परास्त किया I हैहयो का राज्य नर्मदा नदी के आस- पास तक फैला हुआ था , जिसे इन्होने सुर्यवंश सम्राट सगर को हराकर प्राप्त किया था I पौराणिक काल में नहुष , भरत , सहस्त्रार्जुन , मान्धाता , भगीरथ , सगर और युधिष्ठिर ये ही सात चक्रवर्ती महाराजा हुए थे और इनमे तीन नहुष , सहस्त्रार्जुन और युधिष्ठिर को जन्म देने का श्रेय चन्द्रवंश को है I सहस्त्रार्जुन हैहयवंश में ही जन्मे थे तथा सूर्यवंशी सगर से महाराज हैहय ने लोहा लिया था I

महाराज हैहय से पूर्व महाराज चंद्रदेव के पशचात क्रमशः महाराज बुद्धदेव , महाराज पुरुरुवा , महाराज आयु , महाराज नहुष , महाराज ययाति , महाराज यदु , महाराज सहस्त्रजित , महाराज शतजित शासक रह चुके थे I महाराज चंद्रदेव स्वयं बड़े प्रतापी , तेजस्वी और अमृतमय मेधावी थे I महाराज चंद्रदेव के पुत्र बुद्धदेव का विवाह सुर्यवंश के संस्थापक महाराज इश्चाकू क़ी बहिन कुमारी इलादेवी के साथ हुआ I महाराज बुद्धदेव बड़े पराक्रमी , बुद्धिमान और रूपवान थे I महाराज हैहय के बाद युवराज धर्म गद्दी पर बैठे I "यथा नाम तथा गुण" के वे पालक रहे I उन्होंने प्रदेश में शांति , व्यवस्था और न्याय क़ी स्थापना क़ी I इनके नेत्र नाम का एक पुत्र था जो महाराज धर्म के बाद सिहासनासीन हुए I इन्होने अपने पिता के शासन को अधिक सुद्रढ़ बनाया तथा प्रजा के दुःख सुख क़ी ओर अधिक सक्रिय रहे I

महाराज धर्म के पश्चात् कुन्ती महाराज बने I उनका विवाह विद्यावती से हुआ I पत्नी की प्रेरणा से महाराज कुन्ती ने धार्मिक कार्यो में अधिक रूचि ली तथा राज्य को और भी अधिक सुद्रण बनाया I महाराज कुन्ती के सौहंजी नाम का पुत्र हुआ जो बाद में गद्दी का मालिक बना I महाराज सौहंजी ने सौहंजिपुर नाम का एक नया नगर बसाया और प्रतिष्ठानपुर से हटाकर इस नगर को अपनी राजधानी बनाया I आजकल सौहंजिपुर sahajnava नाम से विख्यात है जो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के अंतर्गत आता है I इनकी महारानी चम्पावती से महिष्मान नाम का पुत्र उत्तपन्न हुआ I

महाराज महिष्मान बड़े प्रतापी और वीर पुरुष थे I इन्होने दक्षिण प्रदेश का बहुत - सा छेत्र अपने अधिकार में कर लिया तथा विजित प्रदेश में आर्य संस्कृति और सभ्यता का बहुत प्रचार किया I महाराज महिष्मान ने अपने नाम पर महिष्मति नामक नगर की स्थापना की जिसे अपने राज्य की राजधानी बनाया गया I यह नगर आजकल औंकारेश्वर या मानधाता नाम से प्रसिद्ध है जो निमाड़ जिले में पश्चिमी रेलवे की खंडवा - अजमेर शाखा पर स्थित औंकारेश्वर रोड से सात मील दूर नर्मदा तट पर बसा हुआ है I इनकी महारानी सुभद्रा से भद्रश्रेय नाम का पुत्र उत्तपन्न हुआ I

महाराज महिष्मान के बाद जब भद्रश्रेय शासन पर आरुढ़ हुए तब हैहयवंशियो का राज्य बनारस से महिष्मति के आगे तक फैला हुआ था I सूर्यवंशियो और चंद्रवंशियो की अनबन प्रारंभ से ही चली आ रही थी I इसी को द्रष्टिगत करते हुए महाराज भद्रश्रेय ने अपनी राजधानी महिष्मति से हटाकर बनारस स्थापित की जो कुछ समय पश्चात् सूर्यवंशियो से लोहा लेने का कारण बना , क्योंकि उसके निकट अयोध्या सूर्यवंशियो की राजधानी थी I इस लोहा लेने का परिणाम यह निकला कि हैहयवंशियो को सदैव के लिए बनारस से हाथ धोना पड़ा I राजधानी परिवर्तन के पीछे उनकी धार्मिक प्रवृति अधिक प्रबल रही I इनकी महारानी दिव्या से युवराज दर्मद उत्तपन्न हुए I महाराज भद्रश्रेय अधिक समय तक जीवित न रह सके , इसलिए महाराज दुर्मद को बाल्यकाल में ही शासन की बागडोर संभालनी पड़ी I युवा होंने पर महाराज दुर्मद ने सूर्यवंशियो से लड़ाई मोल ली , जिसमे उन्होंने धन व् सामिग्री बहुत मात्रा में प्राप्त की I वह बड़े ही पराक्रमी , द्रंद्व्रत्ति और विचारवान शासक थे I इनकी महारानी ज्योतिष्मति से धनद नाम का पुत्र उत्त्पन्न हुआ I इनका दूसरा नाम कनक भी है I

महाराज धनद का विवाह कम्भोजपुर के राजा शर्मा की सुपुत्री राखीदेवी के साथ हुआ I कहा जाता है कि इन्होने राज्य विस्तार के लिए काफी धन एकत्रित किया किन्तु उस धन का उपयोग न कर सका I बाद में यह धन इनके वंशज तालजंघ आदि की भूमि में गढ़ा हुआ मिला I महाराज धनद की म्रत्यु अल्पावस्था में ही हों गई थी I इनके चार पुत्र हुए I क्रतवीर्य , क्रतोजा , कृतवर्मा और क्रताग्नी I

महाराज धनद के शासन का उत्तराधिकारी के रूप में उनके जयेष्ट पुत्र क्रतवीर्य हुए I इनकी महारानी का नाम कौशकी था I महाराज क्रतवीर्य ने अपनी सैन्यशक्ति का विस्तार किया I सूर्यवंशी दक्षिण के अनार्य राजाओ से युद्ध कर उन्हें परास्त किया और सब राजाओ को अपने आधीन कर चक्रवर्ती पद प्राप्त कर लिया I इनको एक पुत्र हुआ जिनका नाम अपने नाम पर कर्ताविर्यर्जुन ( जिन्हें सहस्त्रबाहु हैहयवंश समाज के कुलपति भी कहते है ) नाम रखा गया I महाराज कर्ताविर्यर्जुन अर्थात सहस्त्रबाहु का जन्म कार्तिक शुक्ल सप्तमी, कृतिका नक्षत्र , सोमवार को हुआ I सुकृति , पुद्यागंधा , मनोरमा , यमघंत्ता , बसुमती , विष्ट्भाद्र और मृगा आदि इनकी रानियाँ थी I

महाराज सहस्त्रबाहु ने भगवान दत्तात्रेय जी को अपना गुरु बनाना स्वीकार किया और उनसे अस्त - शस्त्र संचालन की विद्या सीखी I हैहयवंश कुलपति सहस्त्रबाहु ने अपने गुरु की छत्रछाया में अपने भुजबल से जम्बू , प्लक्स , शत्मली , क्रुश , क्रौच , शाक और पुष्कर नाम के सातौ द्वीप जीतकर सप्तदीपेश्वर की उपाधि ग्रहण की I सातौ द्वीपों में विविध सात सौ यज्ञ किये , सब यज्ञो में लक्ष - लक्ष दक्षिणा दी I यज्ञ स्तम्भ और बेदी स्वर्ण की बनवाई I कुछ स्थान पर सहस्त्रबाहु जो अब सास बहु नाम से मंदिर विख्यात है , के नाम का निर्माण कराया I यह मंदिर इस समय ग्वालियर और नागदा में आज भी देखे जा सकते है I इन दोनों मन्दिरौ की शिल्प शैली अपने आप में विशिष्टता लिए हुए गौरान्वित है I महाराज सहस्त्रबाहु को कृतिम वर्षा के प्रथम आविष्कर्ता के रूप में भी जाने जाते है I इनकी शक्ति के विषय में अनेक प्रकार की किवदंतिया आज भी प्रचलित है I महाराज सहस्त्रबाहु ने अनेक छोटे बड़े राज्यों से युद्ध किया और उन्हें परास्त किया I इनके शासन काल में राज्य की सीमा बढ़ी I पद्मपुराद्कार कालिका महात्मय में महाराज सहस्त्रबाहु का उल्लेख इस प्रकार से किया : -

               " सोमवंशी महाराज कार्तावीर्यत्मर्जुना I
               तस्यांवाये समुत्पन्न वीरसेनादयो नृपः I I "

महाराज सहस्त्रबाहु की लड़ाई परशुराम के साथ हुई थी , उसमे महाराज सहस्त्रबाहु और उनके वंशजो की अप्रत्यक्ष रूप से समाप्ति हों गयी थी I

कहा जाता है कि जनता के अनुरोध पर कश्यप ऋषि ने कुछ हैहयवंशी छत्रियो को पुनः महाराज सहस्त्रबाहु का उत्तराधिकारी मानकर राज्य शासन प्रदान किया था I इस समय महाराज सहस्त्रबाहु के बचे हुए पांच पुत्रो में सबसे जयेष्ट पुत्र जयध्वज को शासनाधिकारी बनाया गया I महाराज जयध्वज को क्रताग्नि भी कहते है I अपने काल में महाराज जयध्वज बड़े पराक्रमी पुरुष थे I इस समय तक हैहयवंशियो के राज्यों क़ी राजधानी महिष्मति थी I किन्तु महाराज जयध्वज स्वयं भगवान दतात्रेय के परम उपासक थे I इनकी रानी का नाम सत्य-भू था , जिससे तालजंघ नाम का पुत्र उत्तपन्न हुआ I

महाराज जयध्वज के बाद युवराज तालजंघ राज्याधिकारी हुए I इनके सौ पुत्र उत्तपन्न हुए , जो तालजंघ-वंशी कहलाये I इनके समय में हैहयवंश इनके पांच बेटो के नाम पर पांच कुलो में विभक्त हों गया I बीतिहोत्र कुल , भोज कुल , अवान्तिकुल , शौदिकेय कुल और स्वयाजात कुल I पौराणिक काल के इतिहास में महाराज बितीहोत्र अंतिम राजा हुए जो कि विभाजित राज्य के राज्याधिकारी हुए I इनके भाग में दक्षिण प्रदेश आया था और इन्होने अपने राज्य की राजधानी पुनः महिष्मति बनायीं I महाराज बितीहोत्र के सबसे बड़े राजकुमार अनंत के पुत्र दुर्जय हुए जिन्होंने अवंतिकापुरी , जिसे आजकल उज्जैन कहते है , बसाई I

पौराणिक युग के इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि महिष्मति हैहयवंशियो कि राजधानी सदेव बनी रही है I
“लोधी” हिन्दू समुदाय भारत भर में फैला है. यह समुदाय क्षत्रिय वर्ग के अंतर्गत आता है और एक मजबूत योद्धा के रूप में माना जाता है. शब्द “लोधी” योद्धा (योद्धा) का अर्थ है जो लोध का दूसरा संस्करण है. लोधी पृथ्वी के पहले क्षत्रिय थे. लोधम पहले ऋग्वेद, सनातन हिंदू धर्म के सबसे पुराने साहित्य में निकली शब्द है .“लोधी” शब्द मनुस्मृति अध्याय VII-54 में और परशुराम साहित्य में दिखाई देता है. दर्शाये सभी श्लोको में, शब्द लोधम शूरवीर (योद्धा, बहादुर) के लिए प्रयोग किया गया है. परशुराम ने क्षत्रियों के नेताओं को तो छोड़ दिया पर चक्रवर्ती राजा सहस्रबाहु, परशुराम के हाथो मारे गए जब सभी क्षत्रिय भगवान महेश के पास गये और परशुराम के अत्याचारों से बचाऩे को कहा . भगवान महेश ने परशुराम से क्षत्रियो को बचाया और क्षतरा (हथियार) से खेती करने का आदेश दिया. भगवान महेश आज भी लोधेशवर महादेव के रूप में पूजे जाते है.

कुरुक्षेत्र का इतिहास

कुरुक्षेत्र का इलाका भारत में आर्यों के आरंभिक दौर में बसने (लगभग 1500 ई. पू. ) का क्षेत्र रहा है और यह महाभारत की पौराणिक कथाओं से जुड़ा है। इसका वर्णन भगवद्गीता के पहले श्लोक में मिलता है। इसलिए इस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा गया है । थानेसर नगर राजा हर्ष की राजधानी (606-647) था, सन 1011 ई. में इसे महमूद गज़नवी ने तहस-नहस कर दिया।[1]
आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपञ्चक कहा गया, जबकि परशुराम ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पाँच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि संवरण के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली।[2]
महाभारत कुरुक्षेत्र में युद्ध के चित्रण से संवन्धित एक पांडुलिपि
कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ यज्ञ अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया और देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म (यज्ञ, तप आदि) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपीय नामक एक कौरव्य राजा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण[3]में आया है कि कुरु-पांचाल शिशिर-काल में पूर्व की ओर गये, पश्चिम में वे ग्रीष्म ऋतु में गये जो सबसे बुरी ऋतु है। ऐतरेय ब्राह्मण का उल्लेख अति महत्त्वपूर्ण है। सरस्वती ने कवष मुनि की रक्षा की थी और जहाँ वह दौड़ती हुई गयी उसे परिसरक कहा गया।[4]एक अन्य स्थान पर ऐतरेय ब्राह्मण[5]में आया है कि उसके काल में कुरुक्षेत्र में 'न्यग्रोध' को 'न्युब्ज' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण ने कुरुओं एवं पंचालों के देशों का उल्लेख वश-उशीनरों के देशों के साथ किया है।[6]तैत्तिरीय आरण्यक[7]में गाथा आयी है कि देवों ने एक सत्र किया और उसके लिए कुरुक्षेत्र वेदी के रूप में था।[8] उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्घ्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु (रेगिस्तान) उत्कर (कूड़ा वाल गड्ढा) था। इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। अवश्वलायन[9], लाट्यायन[10]एवं कात्यायन[11]के श्रौतसूत्र ताण्ड्य ब्राह्मण एवं अन्य ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और कई ऐसे तीर्थों का वर्णन करते हैं जहाँ सारस्वत सत्रों का सम्पादन हुआ था, यथा प्लक्ष प्रस्त्रवर्ण (जहाँ से सरस्वती निकलती है), सरस्वती का वैतन्धव-ह्रद; कुरुक्षेत्र में परीण का स्थल, कारपचव देश में बहती यमुना एवं त्रिप्लक्षावहरण का देश।
यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन'[12]एवं 'सरक'[13]के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात का है। नारदीय पुराण[14]ने कुरुक्षेत्र के लगभग 100 तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते थे।[15]ऐंश्येण्ट जियाग्राफी आव इण्डिया[16]में आया है कि यह सर 3546 फुट (पूर्व से पश्चिम) लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण 1900 फुट चौड़ा था।
                                            परशुराम ने जब अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए हैहयवंशी क्षत्रियों का संहार किया तो उनके रक्त से कुरुक्षेत्र की भूमि आज भी लाल रंग की ही है राजा कुरु को भगवान इंद्र ने ये वरदान दिया था की इस भूमि पे जो भी मृत्यु प्राप्त करेगा वह स्वर्ग को प्राप्त हो जायेगा 

Thursday, 10 July 2014


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